निर्बल नहीं
निर्बल नहीं
वो जो हर बार तुम झूठ बोलकर
मेरा विश्वास कर देते थे तार- तार
तो सच बताओ मेरे भीतर
के इंसान के मरने पर
क्या होता था तुम्हें कोई भी दुःख।
मैं जो रोज़ रातों को
उठकर रोया करती थी
तकिय से मुंह छुपा कर
सिसकर, अपने केशु भिगोया करती थी
तो सच बताओ क्या आँख खुलने पर
तुम्हें दिखाई देता था
मेरा सूजा हुआ चेहरा।
हर जतन हर प्रयत्न के बावजूद भी
जब तुम छुप कर किसी और से
करते थे वो सब कुछ
जो कभी मेरा हुआ करता था
तो सच बताओ तुम्हें क्या
एक बार भी मेरा चेहरा याद नहीं आता था।
एक बार भी मेरी वफ़ा तुम्हें टोकती
या तुम्हारे अंतर्मन को कचोटती ना थी
मैंने जो लिख दी अपनी पूरी जिंदगी
सबको छोड़कर आ गई तुम्हारे पास
और दिन रात संवारती रही तुम्हारा संसार
तो सच बताओ तुम्हें एक बार भी
मेरी वेदना पर कष्ट ना हुआ।
मेरी तपस्या, मेरे प्रेम पर आंखें ना भरी
पास रहकर भी तुम अजनबी बनते रहे
नजदीकियों से मुझे छलते रहे
तो जान लो तुम भी अब ये
कि मेरे अंतर्मन के तूफ़ान का
तुम अब नहीं हो साहिल।
मैं कभी कमज़ोर ना थी, बस
प्रेम करती थी तुम्हें पर
सच है कि तुम इसके नहीं हो काबिल
तो सच ये भी है कि मुझे
मेरे जीवन को जीने के लिए
नहीं चाहिए कोई और
ना साथी, ना संगी।
मैं कतई निर्बल नहीं
कि चाहिए कोई ठौर।