नदी की आत्म कथा
नदी की आत्म कथा
नदी की आत्म कथा
बताते हुए स्वयं नदी ने
अपने उद्गम से लेकर
अपने अंत की कहानी बताई
अपने प्राकृतिक, मोहक सौंदर्य पर
वह खूब खूब इतराई
कितना ही लम्बा सफर हो
बाधाओं से नहीं घबराती
मैं चलती हूँ तो
अपने रास्ते खुद बनाती
न कभी थकती, न रुकती
आगे बढ़ना ही जीवन है
यही सबको समझती
हिमखण्डों से पिघल कर
पर्वतों से निकलकर
चट्टानों को तोड़ती
धरती को उपजाऊ बनाने
का पुण्य करती
मानव सभ्यता को
जीवन दान देती
अपने प्रियतम सागर
से मिलने
उल्लास और उमंग के साथ
मिलों फैले सन्नाटे में,
मधुर संगीत सुनाती
दुःखी मन से बहती हूँ
क्योकि मनुष्य द्वारा
फैलाई गंदगी
जहर बन मेरी सीराओं
में फैल रही है
हमारी पवित्र धारा में
अपने पाप कर्म बहाने
का उपक्रम करता
मनुष्य आत्ममुग्ध है
धर्म ध्वजाओं और
सांस्कृतिक परम्पराओं वाले
दुखों के घने जंगल
अपने सीने में समाए
सदियों से मैं बह रही हूं
अविचल
पर अब मुझ में वह
पवित्रता नहीं
अपनी दुर्दशा पर
आँसू बहाती
अपने प्रियतम से
मिलने की उत्कंठा में
मैं बहती रहती हूं
और अपने प्यार के लिए
अपना अस्तित्व मिटाकर
उसमें ही समा जाती हूँ!