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Dayasagar Dharua

Abstract

5.0  

Dayasagar Dharua

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नाटक

नाटक

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353


कभी चोर कभी पुलिस

कभी बन जाऊँ जमींदार,

देश तोड़ूँ कभी नेता बन

या खड़ा करूँ नई सरकार।


चाहे फट जाए घरवालों की डाँट से

कान का फाटक,

करना चाहता था,

कर रहा हूँ, करता रहूँगा नाटक।


समझ चरित्र को चेहरा बदलुँ

बदलूँ और भी अपनी भाषा,

पुरे तन-मन से नाटक करुँ मैं

जैसे नाटक ही हो अपनी नशा।


चाहे तनख्वाह कम कर दे मालिक

मुझपे जाये भड़क,

करना चाहता था,

कर रहा हूँ, करता रहूँगा नाटक।


कभी हँसाऊँ किसी नाटक में

और किसी मे फिर रुलाजाऊँ

पर है दुनिया मे सही-गलत क्या

नाटक ही नाटक मे बतला जाऊँ।


चाहे सहना पडे अण्डे की मार

या गालियाँ कड़क,

करना चाहता था,

कर रहा हूँ, करता रहूँगा नाटक।


जो हैं नाटक के रंग-बिरंगे रंग

उन रंगों से रंगजाउँ अपनी रंगत,

जब सही ढंग से मैं रंग जाऊँ

उन्हीं रंगों से रंगीनों की बढ़ाऊँ संगत।


चाहे अनसुनी क्यों न करना पड़े

काल-यम की धमक,

करना चाहता था,

कर रहा हूँ, करता रहूँगा नाटक।


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