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Harshita Jain

Abstract

4.0  

Harshita Jain

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मुक्ति-पथ

मुक्ति-पथ

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408


आज रूप वही फिर तेरा नजरों के भीतर था 

मौन वहीं गढ़ा खड़ा पर वर्णन अधरों पर था 

खामोशी ही चीत्कार तेरी थी

पर आंखों में हर गम था मायूसी खुद से थी

या खुदा से

प्रश्न यही उस क्षण था तेरी प्रतीक्षा में ही ढल रहा

मेरे दिन का कण कण था। 


तेरे चैतन्य के पथ पर खुद को जड़ कर बैठी 

ख्वाहिशें मेरे मन में भी थी पर तेरे मुक्ति पथ पर

मैं सुध खुद की खो बैठी। 

एक अनजानी ठिठक थी, कोई अनकही झिझक थी,

पर भीतर मेरे तेरी खुशी से बढ़कर कोई चाहत न थी। 

तेरी प्रतीक्षा में दिन अब भी ढलता है

रात का तमस अब भी तेरे होने का उजियारा तकता है, 

बस एक क्षण ठहर कर तू संग चलने की गुजारिश कर दे 

ख्वाहिश इतनी ही ये मन करता है।


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