मुक्ति-पथ
मुक्ति-पथ
आज रूप वही फिर तेरा नजरों के भीतर था
मौन वहीं गढ़ा खड़ा पर वर्णन अधरों पर था
खामोशी ही चीत्कार तेरी थी
पर आंखों में हर गम था मायूसी खुद से थी
या खुदा से
प्रश्न यही उस क्षण था तेरी प्रतीक्षा में ही ढल रहा
मेरे दिन का कण कण था।
तेरे चैतन्य के पथ पर खुद को जड़ कर बैठी
ख्वाहिशें मेरे मन में भी थी पर तेरे मुक्ति पथ पर
मैं सुध खुद की खो बैठी।
एक अनजानी ठिठक थी, कोई अनकही झिझक थी,
पर भीतर मेरे तेरी खुशी से बढ़कर कोई चाहत न थी।
तेरी प्रतीक्षा में दिन अब भी ढलता है
रात का तमस अब भी तेरे होने का उजियारा तकता है,
बस एक क्षण ठहर कर तू संग चलने की गुजारिश कर दे
ख्वाहिश इतनी ही ये मन करता है।