मंज़र
मंज़र
सोचने-समझने के सब मंज़र निकल गए,
न जाने कितने ही खंजर इस दिल में उतर गए।
कुछ भी कहने -सुनने से दिल डरने लगे हैं,
अपने ही आपसे अब ये दिल सहमने लगे हैं।
अनायास ही सब ये किस मंज़र पे आ बैठे हैं ,
अपने ही दिल को अपने आपका कैदी बना बैठे हैं।
बन्द दिलों को सहेजे समेटे सब यूँ ही चले जा रहे हैं,
इस बेरुखी में सबके सपने जले जा रहे हैं।
मेरा भी हमेशा चलते रहना ज़रूरी था,
हर कदम बढ़ते रहना ज़रूरी था।
शायद ज़िन्दगी का हर मंज़र मेरा भी देख लेना ज़रूरी था,
हाँ ! यह कह दिया मैंने क्योंकि ये कह देना ज़रूरी था।