मंज़िल
मंज़िल
रोज सोने से पहले एक सपना देखता हूँ
रोज सवेरे उसको पूरा करने के लिए जम कर मेहनत करता हूँ
मंज़िल की दौड़ में भागता चला जा राहा हूँ
पता नहीं कब मिलेगी मंज़िल
बस कोशिश जारी है
मगर राह में है काटे और पत्थर
और है बड़ी बड़ी रुकावटें
सोच राह हूँ कैसे करूंगा पार
मंज़िल पर चल पड़ा हूँ
पीछे मुड़ना संभव नहीं है
एक तरफ़ है खाई तो एक तरफ़ है जिंदगी भर की खुशी
मगर खाई है इतनी गहरी की गिर पड़ा तो उठ नहीं पाओगे
मेहनत करनी है
मंज़िल दूर है
पर कोशिश करते ही रहना है
जिंदगी में आए हैं तो
कुछ करके दिखाना है
माँ के भी कुछ अरमान है
उसे भी पूरे करके जाना है
दुनिया में आए है तो कुछ
बन कर और नाम करके जाना है।