मंजिल
मंजिल


मंजिलों का सफर था,
पर मंजिल का पता न था,
खोज रही थी जिसे,
वो किसी मंजिल पर न था,
शायद मील के पत्यर ही थे,
जिन्हें मंजिल मान लिया,
पहुँच कर जब देखा,
लगा ये तो मंजिल न था,
जिसे खोजने चली थी मैं,
वो तो बस मन मंदिर में था,
वह असीम प्रेम का स्रोत्र,
बस मन मंदिर ही था,
बैठा था प्रियतम मन में,
खोज रही थी जंगल मे,
जिसे रही थी,
वो बस संग में था,
क्या कहूँ इसे नादानी,
या वो मेरा बचपन था,
खोजा जिसे सब ओर मैंने,
वो तो बस मेरे मन में था,
पाकर आज उसे,
बस कुछ निखर गयी हूँ,
प्रेम में बस सीख सीख,
बस कुछ संवर गयी हूँ,
आज बस एक ही मंजिल,
वसुधैव कुटुम्ब साकार कर पाऊँ,
एक धर्म,एक देश,एक भाषा,
बस ऐसी धरा बना पाऊँ,
प्रेम ही उपजे,प्रेम ही पनपे,
बस प्रेम की पूजा हो,
हर जीव में दिखे खुदा ही,
बस कोई न दूजा हो।