मंज़िल अनजान सफर की..!
मंज़िल अनजान सफर की..!
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कोई फूल नहीं खिले आज, शब्दों के गुलिस्ताँ में,
शायद खामोशी ही गुलशन महका जाए
कोयल नहीं है आज उपवन में,
शायद वर्षा ही गीत मधुर सुना जाए
नहीं है कान्हा, ब्रज नगरी में ,
खुद बाँसुरी जो प्रेम बहा जाए
नहीं है कोई, हम दर्द यहाँ,
खुद मन ही दर्द मिटा जाए
मंज़िल का निश्चित पता नहीं ,
ये अनजान सफर ही राह दिखा जाए
माना आस तनिक ही है पर,
हिम्मत ही उम्मीद बँधा जाए..!