मन...
मन...
ना जाने ये "मन" क्या ढूंढ रहा
वक्त बेवक्त हर गली हर मोड़ पे आकर
दस्तक देती भोर की सुर्ख लाली में कुछ तलाशता
तो कभी धुंधलाती गहराती शामों में उम्मीद के दीये जलाता...
कभी औरों के जज्बातों में अपनी परछाई देखता
तो कभी खुद में ही खुद को टटोलता
कभी एक टुकड़ा आसमां पाने को ऊंची उड़ान भरता
तो कभी जिंदगी के धूप छांव से रूबरू होता...
कभी किसी संग प्यार की डोर से जुड़ जाता
तो कभी जिंदगी के तानों बानों में उलझकर
अपनों से दूर हो जाता
कभी कभी लगता जैसे मन का हर कोना खाली सा है
तो कभी दो पल किसी संग बैठकर मन सुकून से भर जाता...
मन की कशमकश, भीतर उठ रहा तूफान का शोर
अपने अंदर भी महसूस हो रहा
कुछ लम्हों के लिए ही सही मन ठहरता क्यों नहीं
आखिर मन में जरा सा ठहराव क्यों नहीं...
शायद सारा जहां पा लेने की चाहत
मन को हवा के झोंके सा चंचल कर गया
थोड़ा रुककर थोड़ा ठहरकर आज "मन" का
जिंदगी से बातें करने को जी चाह रहा...