मन बावरा
मन बावरा
क्योंकि मुझे अब कुछ अच्छा नही लगता
जी हाँ,
जब सफ़र शुरू किया था मैंने
तब मैंने बेशक कुछ सोचा न था
अब खो गया लड़खपन मेरा,
सुना है, कभी मेरे भीतर भी एक बचपन था।
क्योंकि मुझे अब कुछ अच्छा नही लगता
जी हाँ,
दोस्त कहते हैं मेरे की एक रास्ता मिल गया है मुझे
और मैं खो गयी हूँ किसी सफ़र में
तो क्या हुआ जो इरादे बदले बदले से लगते हैं।
इस हक़ीक़त को कोई क्यूँ नही मानता कि यार मेरे सारे बिछड़ गये
क्योंकि मुझे अब कुछ अच्छा नही लगता
जी हाँ,
मुस्कुराते चेहरे ने फ़िक्र का चादर ओढ़ लिया
ख़ुशियों ने जैसे मुझसे नाता तोड़ लिया
और बरबस लगता निभाती हूँ चेहरे की मुस्कान को
न जाने खुद से मैंने यह कैसा सौदा कर लिया
क्योंकि मुझे अब कुछ अच्छा नही लगता
जी हाँ,
इस रोज रोज की कशमकश में थक जाती हूं।
मेहनत की आग में जब तप जाती हूँ।
और मेरी अंतरात्मा जब मुझसे करती है सवाल तो जवाब के तौर पर,
आईने के तरफ एक तक निहारूँ न तो खुद से नफ़रत जाती हूं।
क्योंकि मुझे अब कुछ अच्छा नही लगता
जी हाँ,
तन्हाई में अब तो शाम गुज़र जाती हैं।
रात न जाने क्या कयामत ढाती है।
ओर सुबह का सूरज भी देखो न
कैसा शरमाया सा रहता है।
स्वर्णा की लेखनी पर इतराया सा रहता है
क्योंकि मुझे अब कुछ अच्छा नहीं लगता
यह दुनिया मतलब से मतलब रखती है, कंचन
तेरे ज़हन को यह क्यूँ समझ नहीं आता।