मेरी प्रीत
मेरी प्रीत
तेरे प्रीत में हो दीवानी मैं,
गीत नया रच जाती हूँ।
कुछ तुझ में ही जीकर में,
खुद में ही मुस्काती हूँ।।
इस प्रीत को मैं नाम दूं क्या,
यह बंधन तो जैसे जन्मों का,
मैं तुझ में रहूं, तू मुझ में रहे,
ये चाँद चांदनी के प्रेम सा।
देह नहीं विदेह की प्रीत,
रूह से रूह के मिलन की,
अश्कों की अनवरत धार से,
पावन होते अंतस मन की।
मैं प्रेम प्रेम न करती हूं,
बस प्रेम प्रेम ही जीती हूँ,
ढाई अक्षर के बंधन से,
मैं सम्पूर्ण ही होती हूँ।
न जानूँ मैं इश्क़ परिभाषा,
जानूँ तो बस इश्क़ की भाषा,
मौन में सुन, मैं मौन में बोलूं,
सुनती जब जब प्रेम की भाषा।।