मेरी अथाह पीड़ का संसार
मेरी अथाह पीड़ का संसार
अल्पायु में विवाहित होना मेरे अरमानों का कत्ल ही था,
सौगात नहीं सुहाग की किशोरावस्था में ही वैधव्य मिला..
महज़ दो साल का संसार,
जो कहलाता था मेरा सरताज मेरी मांग सूनी कर गया,
मेरी छोटी सी जीवन की प्याली अधूरी ही रही...
कोई नहीं सुनता मेरी तमस घिरी रात सी जीवन व्यथा,
सुख से वंचित ही रही सदा..
निष्ठुर दीप सी जलती रही तिल-तिल बालिका वधू की जीवन कथा,
प्रणय और परिणिता से वंचित अत्यंत अज्ञेय हूँ,
मेरा श्वेत परिधान चित्रित करता है मेरी वेदनानुभूति..
विचित्र सा सूनापन व्याप्त है मेरी ज़िंद में एकाकीपन के डरावने सपने चितवन को डर से भर देते है,
आरोपित है ईश्वर मेरा
अगम मेरी कहानी का वरण क्या करूँ
क्या कोई सीढ़ी जाती है सुख के सागर तक..
मेरा कसूर बांझ है किसीको नहीं पता मेरी दशा का कारण,
सुबह मेरे चेहरे का दर्शन वर्ज्य है..
चुटकी भर बीती है उम्र मेरी,
शेष बहुत लंबी है कैसे कटेगी जानूँ ना...
अश्रुकण चुभते है नैंनों में आँचल गीला ही रहता है मेरा..
एक भी निनाद की हकदार नहीं, एक भी झंकार मेरी लकीरों में नहीं..
तन की प्यास जलाती है,
नशीले उन्माद को कैसे शांत करूँ रंगीनियों का कोई गुब्बार दिखता नहीं..
कितने वसंत बीत रहे है पतझड़ ठहर गया है छंटता ही नहीं...
आकंठ डूबी हूँ दर्द के दलदल में
सहनाभूति सभर एक भी पदचाप मेरी ओर आता सुनाई नहीं दे रहा,
इतनी अनमनी क्यूँ हूँ
वैधव्य का दंश नासूर बन गया है
दु:खों के धरातल पर खड़ी तलाश रही हूँ
वेदना को तिरोहित कर जाऊं लेकिन कैसे?
रक्तवर्णी शाख कोई दिखती ही नहीं।