मेरी आवाज़
मेरी आवाज़
हां मैं पहले मीठी आवाज में बोलती थी,
क्योंकि मेरे आस-पास रहने वाले लोगों को वो मीठी आवाज पसंद थी,
अब थोड़ा ऊंचा बोलना पड़ता है, क्योंकि कुछ लोगों को जवाब देना पड़ता है,
मेरी आवाज़ मेरे हिजाब के नीचे दबी नहीं है, मेरी आवाज़ अब भी मेरे ख़ुदा तक पहुँच जाती है,
मेरे ज्यादा चीखने का भी कोई फायदा नहीं, या तो तुम अनसुना करदोगे या सुनकर भी कुछ ना करोगे.,
मैं ज़्यादा चीख कर नहीं बोलती, हाँ लेकिन कभी -कभी ऊंचा बोलती हूँ.
मैं इतना साफ बोलती हूँ कि बहरों को भी समझ आ जाए, पर जिसे बोलना चाहती हूँ उसे ही समझ नहीं आता.
अन्याय को देखकर चुप रह भी नहीं सकती और बोलकर कुछ फायदा भी नहीं,
लेकिन शायद कुछ हो जाए, ये सोचकर बोल देती हूँ।