मेरे हक का आसमान भी है
मेरे हक का आसमान भी है
सहस्त्र सदियों से बंदीशों के दायरे से लिपटी स्त्री पढ़ लिखकर आगे बढ़ी तो जाना संसार कितना सजीला है..
एक-एक रिवायतों को तोड़ती जब हकीकत की धरा से जुड़ी तब जाना हर पथ पर रोशनी का डेरा है..
बंद दहलीज़ लाँघकर कदम बाहर धरते ही अपने अधिकारों से गले मिली तब जाना खामखाँ सहते पैरों की जूती बन पड़ी थी..
चौखट की तुलसी जब खिलकर विराट बरगद बनी तब जाना, जाना की हवाओं में है कितनी ताजगी भरी है..
अपनी मर्ज़ी से चुनकर अपना साथी जब हाथ थामें हमसफ़र का चली तब जाना आसान है हर सफ़र और मंज़िल
मुठ्ठी में है..
अपनी खुशियों को तलाशती गुड़िया हौसलों के दम पर कमाने निकली तब जाना जीने की असली वजह तो मन की आज़ादी है..
साँस लिया जब स्वाधीन होते डोर थामकर सपनों की तब जाना कितनी रंगीन दुनिया की हर शै की रौनक है..
घुटन की आदी थी कल तक कश्ती से वंचित, जब साहिल अपनी खुद बनी तब जाना सृष्टि सारी विभान्नता की तस्वीर बड़ी प्यारी है..
पी रही थी दमन का दरिया कल तक अबला थी बेचारी, आज आग खुद बनकर उभरी तब जाना क्यों सहती मैं आई, मेरे हक का आसमान भी ईश्वर ने रचा है क्यूँ ढूँढ न पाई।