मेरा कर्तव्य
मेरा कर्तव्य
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थाल सजाई थी मैंने,
जन जन में प्रेम जगाने की,
सोई खोई कही जो करुणा,
वापस उसे ले आने की।
सिसक रही थी जब जब,
माँ वसुंधरा मेरी एक मौन में,
मैं भी रही अश्को की गंगा में,
न रही कभी सुख चैन में।
दोष सदा तुम रहे मुझे देते,
एक कर्तव्यहीनता का,
मैं तो रही कर्तव्य पथ पर,
न कभी तू मुझे समझा।
कैसे लिखती गीत प्रेम के,
प्रिय प्रेयसी को मिलाने का,
जब तन मन मेरा तड़प रहा था,
वसुधा का कष्ट हरने का।
शायद कभी तुम भी समझोगे,
मेरे त्याग,प्रेम समर्पण को,
कुछ अनकहे शब्दो से,
प्रेम की विराटता गढ़ने का।।