मेना का परिताप
मेना का परिताप
शिव जी की बारात चली
अगवान बारात लिवा लाये
सुन्दर जनवासे में ठहराये गये
उत्तम मंगलगीत गाये गये ।
पार्वती की मां मेना ने आरती संवारी
हाथों में कंचन थाल शोभित है,
शिव दुल्हे का परछन करने मेना चली
पर देख भयानक वेश शिव का लौट चलीं।
मेना के हृदय में दुःख हुआ
दुःख से मूर्छित हो गईं,
धीरे धीरे चेत हुआ
तो क्षुब्ध होकर विलाप करने लगीं।
पार्वती को अपने पास बुलाया ,
स्नेह से गोद में बैठाया ,
नयनों में अश्रु भर आये ,
वेदना व्यथित हो कहने लगीं,
मेरी बेटी ने ऐसा तप किया
जो मुनियों के लिये भी दुर्लभ है ,
उस तपस्या का यह फल मिला
जो देखने वालों को दुःख में डालता है।
जिस विधाता ने तुम्हें सुन्दर रूप दिया
उसने तुम्हारे दूल्हे को बावला कैसे बनाया,
मेरे दुःख को दूर कौन करेगा
मेरे जीवन का नाश हो गया।
जो फल कल्प वृक्ष पर लगना चाहिये
वह बरबस बबूल में लग रहा है,
तपस्या का उपदेश देनेवाले नारद को,
सहायता करने वाली सखियों ,को धिक्कार है।
मेरी बेटी ने सोना देकर कॉंच ख़रीद लिया,
सूर्य छोड़कर बलपूर्वक जुगनू को पकड़ लिया,
हंस उड़ाकर पिंजड़े में कौवा पाल लिया
गंगाजल फेंककर कुएँ का जल ले लिया।
मैं बॉंझ क्यों नहीं हो गयी,
मेरी पुत्री मर क्यों नहीं गई,
यह कह कर मेना मूर्छित होकर गिर पड़ीं,
शोक रोष आदि से व्याकुल हो गईं।