मौसिकी
मौसिकी


सिर्फ लफ़्ज़ों से भला क्या, कभी एक नज़्म खिलती है,
जरा जुबाँ-ए-चाशनी घोलो तो, फिर मौसिकी निखरती है!
चमकती धूप की चुभन में क्या, कभी बाछें भी खिलती हैं,
जरा सी साँझ की सोंधी मिले तो, फिर ,सुकूँ की शाम ढलती है!
सितारों से सजे आँगन में भी, रौशनी क्या ख़ाक खिलती है,
जरा सी चाँदनी पाकर ही, ये पूनम रात सजती है!
कलम कागज पर घिसने से भला क्या, उम्मीदें साँस भरती हैं,
जरा सी जज़्बात की पुड़िया मिले तो, ज़िंदगी नये अंदाज़ भरती है !