मैं सन्नाटा बुन रही हूँ ...
मैं सन्नाटा बुन रही हूँ ...
मैं सन्नाटा बुन रही हूँ ...
जाने कब से
न, न अकेलापन या
एकांत नहीं है ये
और न ही है ये ख़ामोशी
तेरे शहर के सन्नाटे का एक फंद
मेरी रूह के सन्नाटे से
जुड़ कर बना रहा है तस्वीर-ए-यार
सुनो
तुम ओढ़ लेना मैं पढ़ लूँगी जुबां
हो जायेगी बस गुफ़्तगू
काफी है जीने के
इश्क की प्यालियों का नमक है ये
जिसका क़र्ज़ कायनात के
अंतिम छोर तक भी चुकता नहीं होता ...