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संजय असवाल

Abstract Others

4.7  

संजय असवाल

Abstract Others

मैं रिस्पना नदी हूं।

मैं रिस्पना नदी हूं।

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कभी इठलाती कभी बलखाती

मैं कभी मन मोहनी थी 

देहरादून की जान कभी

मैं बहुत सोहनी थी।

स्वच्छ निर्मल जल मेरा 

कल कल बहता रहता था 

नदी के मेरे निनाद में 

दून कभी खोया रहता था।

दूर दूर तक फैली हरियाली 

अजब गजब छटा निराली थी 

मेरे तट पर बच्चों की 

हंसी ठिठोली रहती थीं।

देहरादून की प्राण थी मैं 

सबको जीवन देती थीं 

मेरे जल को पीकर ही 

सुबह दून की होती थी।

पर वक्त बीता रंग मेरा

अब बदरंग सा हो गया 

मेरा अल्हड़ सा बांकपन 

न जाने अब कहां खो गया।

देह से मेरे अंतश: तक 

अब मैं बूढ़ी हो चली

नदी कभी कहलाती थी 

अब कूड़े की ढेर हो गई।

मैं मृतप्राय सा मरणासन्न 

धारा अमृत ये मेरी सूख गई 

अपनों की इस बेरुखी से 

पथराई मेरी आंखें हो गई।

दुर्गन्ध से भरी मेरी मृतकाया 

बस आखिरी सांस अब बाकी है 

दर्द की उठती हिलोरें संग 

मैं आधुनिकता की मारी हूं।

सब कुछ छिना इस विकास में 

एक अनसुनी त्रासदी सी हो गई 

खुद पीड़ित है जलधारा मेरी 

मैं भुलाई सी रिस्पना हो गई।



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