मैं नहीं लिखूँगी।
मैं नहीं लिखूँगी।
मैं नहीं लिखूंगी
और न पीसूंगी कागज के
सिल पर कलम से
अपनी तमाम शिकायतें,
उलाहने जिंदगी के।
चन्द उलझने
जो बांट नहीं पाऊंगी
उन्हें अपने निवाले में लेने
छिड़कूँगी ढेर सारी उम्मीदें
और निगल जाऊंगी।
शिकवों को
रखूँगी मन के अँधेरे में
हमेशा ऐसे ही बिन कहे
यकीन नहीं चन्द शब्दों को
खुल कर जलाने में।
असल में डरती हूँ
डरती हूँ उस निष्ठुर समय से
जो अचानक गिरा देता है
वो जरूरी रिश्ते
किसी पुराने सूखे दरख़्त से।
सो रहने दो मुझे
यहां जैसे भी रहती हूँ
चन्द जगहों पर हमेशा
मैं मां जैसी
औरत हूँ।
क्रमशः