मैं इक क़तरा हूँ
मैं इक क़तरा हूँ
मैं इक क़तरा हूँ दरिया-ऐ-हयात का,
कल बिछड़ जाऊँ जो आज साथ था!
मुझ से इतना ख़ुलूस न रख ऐ दुनिया,
न कुछ तेरे पास, न कुछ मेरे हाथ था!
कैसे लाऊँ रोशनी, मैं इक ज़िन्दगी में,
कैसे बनूँ सहर जब कि मैं तो रात था!
चोट खाये बैठें हैं सैकड़ों दिल यहाँ पे,
हर दिल मारा हुआ देखो जज़्बात का!