मैन इज अ सोशल एनीमल
मैन इज अ सोशल एनीमल
आजकल लग रहा है कि मैं कुछ ज्यादा ही स्वार्थी हो गया हूँ....
चाहता हूँ की घर से बाहर जाऊँ....
लोगों से हिलता मिलता रहुँ....
मैं शामिल होना चाहता हूँ अपनों की खुशियों में....
मैं शामिल होना चाहता हूँ अपनों के गमों में भी....
लेकिन मैं बस सोचकर रह जाता हूँ....
बाहर जाने के लिए....
फिर मन ही मन ना जाने का फ़ैसला कर लेता हूँ....
आउट ऑफ गिल्ट उस फैसलें को फिर से जस्टिफाई करता रहता हूँ...
बार बार....
एनालिसिस के साथ...
रीजनिंग के साथ....
लॉजिकल थिंकिंग के साथ....
मैं मन ही मन जानता हूँ की मेरे अपने मेरा इंतज़ार कर रहे है....
लेकिन मैं खुद को किसी मसरूफ़ियत में डूबों देता हूँ....
'टेम्पररी' मसरूफ़ियत.....
'मैन मेड' वाली मसरूफ़ियत....
मैं जानता हूँ कि मेरे अपने मेरे आने के इंतजार में दरवाज़े की तरफ़ ताक रहे होंगे....
किसी भी हल्की आहट पर वह दरवाजों की तरफ़ दौड़ पड़ते होंगे....
फिर निराशा भरे कदमों से वापस लौट जाते होंगे.....
इन वाकयात में मुझे लगने लगा है कि जैसे मैं अपनी पढ़ाई भूलने लगा हूँ...
'मैन इज अ सोशल एनीमल' कभी यह पढ़ा था मैंने.....
इस 'मैन मेड' मसरूफ़ियत में मैं सोशल मीडिया में ज्यादा एक्टिव रहने लगा हुँ...
वही इंस्टा और एफबी वाला सोशल मीडिया....
थोड़ी ही देर में न जाने क्यों इस इंस्टा और एफबी की वर्चुअल दुनिया मुझे फेक लगने लगती है....
मैं लोगों की लाइक्स और मैसेज से जल्द ही उकता जाता हुँ....
क्या उनमें से कोई भी मेरे साथ होकर मेरे पास होते है भला?
यह सोच मेरा पीछा करने लगती है.....
मेरी सोच और गहरी होने लगी है की हम बस एनिमल रह गये है सोशल एनिमल नही...