मैं ही याज्ञसेनि
मैं ही याज्ञसेनि
ले ताप अग्नि का खुद में द्रुपद घर मैं आई थी
तभी तो इस संसार में मैं द्रौपदी कहलाई थी
आयोजित हुआ स्वयंवर मेरा सब राजा महाराजा आए थे
पर मेरे इस मन को केवल गांडीव धारी ही भाए थे
बिना देखे माँ कुन्ती ने ये कैसा वचन सुनाया था
समझ मुझे भिक्षा कि वस्तु पांडवों में बटवाया था
पाँच पतियों कि पत्नी मैं पांचाली कहलाई थी
कुरुवंश कि कुल वधू बन हस्तिनापुर मैं आई थी
हुआ आयोजित द्युत सभा तब कैसी घड़ी ये आई थी
सम्पत्ति समझ कर अपनी दाव पर मैं गई लगाई थीं
चीर हरण हुआ जब मेरा ना वो सभा शरमाई थीं
पाँच पतियों कि पत्नी तब वैश्या भी कहलाई थीं
मौन हुए सब देख रहे कोई रक्षा को ना आया था
अपनी लाज बचाने को जब मैंने गुहार लगाया था
तब सुन मेरी वो करुण पुकार मोहन ने चीर बढ़ाया था
हुआ अपमान नारी का जब सबने दंड तब पाया था
बन प्रचंड अग्नि तब मैंने अधर्मीयों को जलाया था
कुरुवंश कि कुल वधू ,हाँ! पांडवों कि मैं पत्नी हूं,
कृष्ण कि सखी मैं कृष्णा हाँ! मैं ही याज्ञसेनि हूं,
मैं ही याज्ञसेनि हूं। ।