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Kajal Mishra

Classics

3.4  

Kajal Mishra

Classics

मैं ही याज्ञसेनि

मैं ही याज्ञसेनि

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403


ले ताप अग्नि का खुद में द्रुपद घर मैं आई थी

तभी तो इस संसार में मैं द्रौपदी कहलाई थी 

आयोजित हुआ स्वयंवर मेरा सब राजा महाराजा आए थे 

पर मेरे इस मन को केवल गांडीव धारी ही भाए थे 

बिना देखे माँ कुन्ती ने ये कैसा वचन सुनाया था

समझ मुझे भिक्षा कि वस्तु पांडवों में बटवाया था

पाँच पतियों कि पत्नी मैं पांचाली कहलाई थी 

कुरुवंश कि कुल वधू बन हस्तिनापुर मैं आई थी 

हुआ आयोजित द्युत सभा तब कैसी घड़ी ये आई थी

सम्पत्ति समझ कर अपनी दाव पर मैं गई लगाई थीं 

चीर हरण हुआ जब मेरा ना वो सभा शरमाई थीं

पाँच पतियों कि पत्नी तब वैश्या भी कहलाई थीं 

मौन हुए सब देख रहे कोई रक्षा को ना आया था

अपनी लाज बचाने को जब मैंने गुहार लगाया था 

तब सुन मेरी वो करुण पुकार मोहन ने चीर बढ़ाया था

हुआ अपमान नारी का जब सबने दंड तब पाया था 

बन प्रचंड अग्नि तब मैंने अधर्मीयों को जलाया था

कुरुवंश कि कुल वधू ,हाँ! पांडवों कि मैं पत्नी हूं,

कृष्ण कि सखी मैं कृष्णा हाँ! मैं ही याज्ञसेनि हूं,

मैं ही याज्ञसेनि हूं। ।



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