माटी के मोल
माटी के मोल
कभी कभी दिल में
जाने क्यों ये खयाल आता है
इंसान इस जहाँ में
खुद से ख़फ़ा-ख़फ़ा क्यों रहता है
पल दो पल की तो है ये जिंदगी
मगर कौन समझाए उसको
जो कुछ भी हासिल किया है अब तक
कल बिक जायेगा माटी के मोल
पीछे छूट जाएंगे कदमों के निशान
सांसों की घुटन, बेचैन आंखों की चुभन
जो कल तक थे नदारद
जुट जाएंगे वही यार कांधा देने को
दम तोड़ती चंद सांसे, फड़फड़ाती धड़कनें
हो जाएंगी जुदा पल भर में
जो अपने हैं झाड़ लेंगे पल्ला
कुछ आंसू टपकाकर
बस इतनी-सी औकात है
जिन्दा लाश की मुर्दा इंसानों के शहर में
सब भूल जाएंगे कि जाने वाला कौन था
जो चला गया क्या था रिश्ता उससे
यही फ़ितरत है हर इंसान की
यही दस्तूर है यहां ज़माने का युगों-युगों से।