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Rekha gupta

Abstract

4  

Rekha gupta

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माटी का मोल

माटी का मोल

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किसी की रात न काली हो 

हर द्वार पर उजियारा हो 

ये ही सोचकर, हे कुम्हार 

तुम कितने सुंदर दिये बनाते हो।


सुबह सवेरे उठते हो 

शाम ढले तक माटी में रहते हो 

माटी को कुंदन सा तपा तपा 

सुंदर सुन्दर दिये बनाते हो।


दिन भर साथ चाक और मिट्टी 

भांति-भांति की भव्य आकृति 

बनाते देवी की प्रतिमा और मूर्ति  

अपना कमाल का हुनर दिखाते हो।


न दिन रात का होश तुम्हे

बस दो वक्त की रोटी के लिए 

रहकर खुद अंधियारे में  

सबका तिमिर मिटाते हो।


लेकिन ये कलयुगी आधुनिक मानव 

कहां समझता तुम्हारी भावनाओ को 

बिजली और मोम के दिये जलाकर 

नकारता तुम्हारे श्रम और भावो को।


सुन ओ कलयुगी मानव,क्यों  

विदेशी चीजों से अपनत्व रखना

हिन्दू संस्कार रीतियों को भूलकर 

क्या कर पाएगा पूरा अपना सपना।


हे मानव कभी न भूलना 

इस माटी का मोल तू 

ये तन भी माटी का ढेला 

मिट्टी हो जाएगा, जान ले तू।


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