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अजय गुप्ता

Inspirational

4.2  

अजय गुप्ता

Inspirational

मानवता से मुलाकात

मानवता से मुलाकात

2 mins
261


       (१)


शब्द होठों से निकल कर,

आहत हृदय को कर गया।


रंजित खंज़र चमक कर,

घाव जिस्म में कर गया।


लहू जिस्म का उसका,

हिम धरा पर बह गया।


एक फुहार किसी नक्षत्र से,

उसके शरीर पर पड़ी और वह


हँसता हुआ हिमशिखर पर

बर्फ की गोद में छिप गया।


        (२)


बर्फ में दब के उसका जिस्म 

नीला शांत सा पड़ गया


सांसों में हलचल न रही

हृदय की धड़कन भी थम सी गई


लोग सारे बंदोबस्त करने में थे जुटे

मानवता से ये मंजर देखा न गया


प्रेमिका बन के लिपट गई वो,

उसके जिस्म से एक रूह की तरह


अधरों से सांसों में सांस मिलाती

अपने शरीर की गर्मी से उसे तपाती


सांसों में मच गई उसकी हलचल

जिंदा रहने को मचल गई धड़कन


वो जिद कर उठा जीने के लिए

 उसको को अपनी बाहों में लेने के लिए


एक साथ कुछ कदम चलने के लिए

अपने हृदय के उदगार कहने के लिए 

 


           (३)


अधरों पर चिंतन छोड़ा

आँखो में कैसी ज्वाला


अथक मदहोश सा बैठा हूं

पिला दी संजीवन जयमाला 


मैं राही भटक रहा

तू मेरी इंगित बाला


ये कैसे संबंध बना दिए

पागल मुझ को कर डाला


मंथन ये कैसा हो रहा

निकल रही जिससे हाला


उद्वेग नहीं, विचार नहीं

तूने मुझ को ही मंथित कर डाला


मेरा अस्तित्व बोध मिटा कर 

ये कैसा अंकुर तूने डाला


नयनों के अश्रु सुखा कर

दे दी अलौकिक जीवन माला


मुझे नहीं मालूम कौन तुम

क्या संबंध हमारा 


पर चाहूं जीवन पर्यन्त

तुम्हारा ही हो जाना


भ्रमित तो नहीं मैं

या स्वप्न है यह कोई


शांति है चारों ओर

मानवता के संग हूं मैं


श्वेत पताकाएं फहरा रही

हिंसा का है नाम नहीं


हर पल फिजाएं गाती हैं

नफरत का है काम नहीं


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