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Jitendra Jitu

Abstract

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Jitendra Jitu

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मानव धर्म

मानव धर्म

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सुबह जब दूर छितिज के पार,

अंगड़ाई लेता है आका,

दिशाओं की दुंदुभी बीच,

करके नीले पर्दे को क्षीण,

पिरोये मन में सैकड़ों आस

जन्म लेता है नवीन प्रकाश


कभी तो पीत, कभी लोहित,

कभी वो हो जाता है श्वेत,

कभी छुप जाता बादल बीच,

कभी हर ब्यूह देता है भेद


चढ़ावों और उतारों बीच,

रचता है जीवन का संगी,

करके हर पड़ाव को पार,

पहुँचता पश्चिम में आदित्य


जहाँ छुप जाते सारे श्रेय,

शेष रहता न कोई धेय,

दिनभर की थकान से त्रस्त,

वहीं पे सूर्य हो जाता अस्त


पहुँचता वहां, जहां बस मौन,

कौन हूँ मैं, कौन है कौन,

छूट जाते सारे पदचिन्ह,

सभी ‘मैं’ हो जाते हैं मौन


और फिर होता नवल प्रभात,

धारण कर के अभिनव गात,

बजाता नवजीवन का तूर्य,

उतरता जीवन पथ में फिर सूर्य,


देख ‘जीतू’ जीवन का खेल,

मृत्यु से जीवन का यह मेल,

सृष्टि के प्रथम दिवस से ही,

चले स्रष्टा की जीवन रेल


जन्म, फिर मृत्यु,

म्रत्यु, फिर जन्म,

है यही सृष्टी का परम मर्म,

जन्म से ही निश्चित है मृत्य,

फिर भी जीना मानव का धर्म

फिर भी जीना मानव का धर्म।


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