Become a PUBLISHED AUTHOR at just 1999/- INR!! Limited Period Offer
Become a PUBLISHED AUTHOR at just 1999/- INR!! Limited Period Offer

Dr Vivek Madhukar

Abstract

4.6  

Dr Vivek Madhukar

Abstract

माँ, रो क्यों रही तुम ?

माँ, रो क्यों रही तुम ?

2 mins
204


शिशु ने पूछा माँ से,”रो क्यों रही तुम ?”

“मैं औरत हूँ”,इसलिए”, कहा उसने।

“कुछ समझा नहीं माँ, क्या कह रही तुम ?”

माँ ने गले लगा लिया प्यार से,

कहा “समझोगे भी नहीं कभी !”


पिता से पूछा फिर शिशु ने,

”माँ रोती क्यों बिना कारण ?”

“रोती हैं सारी औरतें ही बिना कारण”,

इतना ही तो कह सके पिता।

छोटा शिशु अब बड़ा हो गया था,

कद में ही नहीं, समझ में भी।

पर सवाल आज भी अनुत्तरित था उसका

“क्यों रोती हैं औरतें ?”


कर पाया ना कोई संतुष्ट उसे अपने उत्तर से,

कोई मिला नहीं इस जहां में

उसे जिसने समझा हो औरत को,

उसके रुदन को।


तब उसने राह ढूंढी,

और जा पहुंचा ईश्वर तक।

पूछा जगत्स्रष्टा से,”भगवन, क्यों रो

पड़ती हैं औरतें यूँ अनायास ही ?”


खिल गयी स्मित हास जगन्नाथ के आनन पर

कहा-“जब गढा मैंने औरत को,

बनाया उसे सबसे अलग, सबसे विशेष”।

स्कंध दिए सशक्त उसे,

वहन कर सके वह भार दुनिया का,

और साथ ही नरम इतने कि

दे सके तपते जग को श्रान्ति।

प्रदान की उसे एक अद्भुत आतंरिक शक्ति,

बन मेरी प्रतिनिधि गढ़ सके वो अपना ही प्रतिरूप,

सह सके परित्याग और अस्वीकृति, बार बार

और अपने इन्ही संतानों से कितनी ही बार।


दी सख्त दृढ़ता उसे, डटी रहे पथ पर

हार कर बैठ चुके हों जब और सब।

कर सके अनवरत सुश्रुसा, रख सके ध्यान

बिना किसी शिकायत के,

अस्वस्थ हो या कि थकान से चूर

परिवार का कोई सदस्य जब।

कोमल एक ह्रदय दिया उसे,

बहती रहे स्नेह-धार अविरल

उससे उसके प्राणप्रिय संतानों के लिए।

थमती नहीं कभी यह धार, तब भी नहीं

जब यूँ ही कर जाते चाक सीना

उसका यही जाये बच्चे उसके।

दिया उसे सामर्थ्य, निकाल ले जा सके अपने पति को

उसकी त्रुटियों, अपूर्णताओं के भंवर से

रचा मैंने उसे मर्द की पसली से,

संभाल कर रख सके ताकि वो दिल मर्द का।


अंतर्ज्ञान दिया उसे, जान सके वो

नहीं पहुंचाता चोट पत्नी को कोई भी भला पति,

जानता है वो खड़ी रहेगी अविचलित साथ उसके,

चल रहे हों भले भयानक झंझावात।

और तब अंत में दिया मैंने उसे

बहाने को एक कतरा आंसू,

विशिष्ट उसी के लिए

उपयोग कर सके उसका वह अपने मन मुताबिक।


“मेरे बच्चे”, कहा ईश्वर ने फिर, “औरत की सुंदरता

बसती नहीं परिधान में उसके, न काया में उसकी,

न उसकी अतुल केशराशि में।


आँखों में समाई रहती है सारी सुंदरता नारी की,

वही है प्रवेशद्वार उसके ह्रदय का,

है जो मेरी सबसे अनूठी, सबसे प्यारी कृति

वास करता जहां प्यार

अपरिमित, अबाध, बेशर्त।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract