माँ की महिमा
माँ की महिमा
कोई जननी कहता है, कोई मैया बुलाता है।
मगर ममता में उसकी, खुद को झुलाता है।
जो सागर है मुहब्बत का, वह शब्द केवल माँ।
मेरे संग में रहती है, हर वक्त केवल माँ।
माँ की महिमा का वर्णन, कभी मैं कर नहीं सकता।
आसमाँ में कूची ले, रंग भर नहीं सकता।।
माँ धीर रहती है, बहुत गंभीर रहती है।
हर दर्द को अपने, सीने में सहती है।
मगर जरूरत पड़ने पर, उसने उठाये तीर।
वो जीजाबाई थी जिसने, शिवाजी को बनाया वीर।
माँ की महिमा का वर्णन, कभी मैं कर नहीं सकता।।
जब जिंदगी में मेरे, कालिमा छा जाती है।
तब माँ की वह लोरी, मुझे याद आती है।
मुझे याद आता है, वह प्यारा-सा बचपन।
वह कागज की कश्ती, माँ की आँखों का सावन।
माँ की प्रीत की गहराई, तक मैं जा नहीं सकता।
सागर में डूबकर भी, मोती पा नहीं सकता।
माँ की महिमा का वर्णन, कभी मैं कर नहीं सकता।।