माॅं
माॅं
' माॅं ' इतना छोटा शब्द नही है
जिसको विद्वानों के विद्वान भी
स्वर – व्यंजनों के बंधन में बाँध पायें
इस गूढ़ शब्द को शब्दों की सीमा में समां पायें ,
ब्रम्हाँ ने जब शब्द गढ़ा होगा
' माँ ' शब्द को विशाल किया होगा
ममता जैसे एक शब्द से
पूरा शब्दकोश लिखा होगा ,
जग के रचयिता की रचना है ये
कैसी गजब की संरचना है ये
खुद नही पहुँच सकते हैं जहाँ
वहाँ पहुचने के लिए ही रचा है ये ,
ये ' माँ ' खुद में इतनी महान है
ये ' माँ ' शब्द प्रभु के समान है
इस शब्द से सजे आकार को
देते प्रभु के समानांतर सम्मान हैं ,
' माँ ' के बिना ये संपूर्ण जगत है अधूरा
वही तो है बच्चों के जीवन का सवेरा
जिनकी माँ नही है उनसे जा कर पूछो
क्या कोई कर सकता है इस कमी को पूरा ?
वो अपने आप में गर्वान्वित हैं
अपनी नज़रों में सम्मानित हैं
क्योंकि मेरे पास उनकी ' माँ ' है
वो अपनी मां का और मां उनका पूरा जहां है ।