लम्हे जिदंगी के
लम्हे जिदंगी के
यादें उन गलियों की
बहुत हमें सताती है
बचपन वही गुजरा
जवानी में रूलाती है
वही मिलते थे यार सारे
होती थी नटखट शरारतें
कुछ उनकी तो कुछ अपनी
चलती थी सारी बाते
वही मंदिर थे वही थे मस्जिद
रहते थे सब एक साथ
चौराहे पे बैठ के मियाँ
मनवाते थे सबसे अपनी बात
वही चौराहे से गुजरता हूँ जब
यादें भागती है सब
बदल गया सब कुछ
क्या करेगा उसमें रब
भाग दौड़ की जिंदगी में
व्यस्त हो गये है सब
लगता है की फिर से
बचपन वापस आये कब