“लिखना मत छोड़ो तुम”
“लिखना मत छोड़ो तुम”


गुनधुन में
आखिर क्यों रहूँ मैं
क्यों सोचूँ
भला क्या लिखूँ मैं ?
कभी कविता
मुझे अपनी ओर खींचती है ,
कभी मेरी
उँगलियों पकड़ कर
कहती है मुझसे -
“लिख डालो कहानियाँ”
खिस्से और संस्मरण !!
लोगों की भावनाओं को लिखो
उनकी व्यथाओं को
उजागर करो !
धर्म पर आघात ना हो
सामाजिक समरसता
की बात निकले !
जहाँ कोई तंत्र ना पहुँचता है
वीरान जंगलों में
जहाँ अपने लोग उपेक्षित
रहते हैं
वहाँ जाकर अपनी
किरणें बिखेरो !
प्रभातफेरि का अलख जगाओ !!
कोई पढ़े या ना पढ़े
आज भले नज़रअंदाज़ उन्हें करने दो
कल कोई ना कोई
इन पन्नों को तो पलटेगा
कोई संवेदनशील मानव
दुख: दर्द तो समझेगा !
अंदाज़ कुछ भी हो पर
लिखना मत छोड़ो तुम !!