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AJAY AMITABH SUMAN

Others

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AJAY AMITABH SUMAN

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क्यों सत अंतस दृश्य नहीं

क्यों सत अंतस दृश्य नहीं

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सृष्टि के कण कण में व्याप्त होने के बावजूद परम तत्व, ईश्वर या सत , आप उसे जिस भी नाम से पुकार लें, एक मानव की अंतर दृष्टि में क्यों नहीं आता? सुख की अनुभूति प्रदान करने की सम्भावना से परिपूर्ण होने के बावजूद ये संसार , जो कि परम ब्रह्म से ओत प्रोत है , आप्त है ,व्याप्त है, पर्याप्त है, मानव को अप्राप्त क्यों है? सत जो कि मानव को आनंद, परमानन्द से ओत प्रोत कर सकता है, मानव के लिए संताप देने का कारण कैसे बन जाता है? इस गूढ़ तथ्य पर विवेचन करती हुई प्रस्तुत है मेरी कविता "क्यों सत अंतस दृश्य नहीं?"


क्यों सत अंतस दृश्य नहीं,

क्यों भव उत्पीड़क ऋश्य मही?  

कारण है जो भी सृष्टि में, 

जल, थल ,अग्नि या वृष्टि में।

..............

जो है दृष्टि में दृश्य मही, 

ना वो सत सम सादृश्य कहीं। 

ज्यों मीन रही है सागर में, 

ज्यों मिट्टी होती गागर में।

...............

ज्यों अग्नि में है ताप फला, 

ज्यों वायु में आकाश चला।

ज्यों कस्तूरी ले निज तन में, 

ढूंढे मृग इत उत घन वन में। 

...............

सत गुप्त कहाँ अनुदर्शन को, 

नर सुप्त किन्तु विमर्शन को।

अभिदर्शन का कोई भान नहीं, 

सत उद्दर्शन का ज्ञान नहीं।

................

नीर भांति लब्ध रहा तन को,

पर ना उपलब्ध रहा मन को।

सत आप्त रहा ,पर्याप्त रहा, 

जगव्याप्त किंतु अनवाप्त रहा।

.................

ना ऐसा भी है कुछ जग में, 

सत से विचलित हो जो जग में।

सत में हीं सृष्टि दृश्य रही,

सत से कुछ भी अस्पृश्य नहीं।

.................

मानव ये जिसमे व्यस्त रहा,

कभी तुष्ट रुष्ट कभी त्रस्त रहा।

माया साया मृग तृष्णा थी, 

नर को ईक्छित वितृष्णा थी।

................. 

किस भांति माया को जकड़े , 

छाया को हाथों से पकड़े?

जो पार अवस्थित ईक्छा के, 

वरने को कैसी दीक्षा ले?

.................. 

मानव शासित प्रतिबिम्ब देख, 

किंतु सत सत है बिम्ब एक।

मानव दृष्टि में दर्पण है, 

ना अभिलाषा का तर्पण है।

..................

फिर सत परिदर्शन कैसे हो , 

दर्पण में क्या अभिदर्शन हो ?

इस भांति सत विमृश्य रहा, 

अपरिभाषित अदृश्य रहा।



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