क्या आज़ाद हुए हैं हम
क्या आज़ाद हुए हैं हम
कहने को तो देश कब का आजाद हो चुका। पर अभी भी मानसिक गुलामी से हम उबर नहीं पाए हैं। मुगल चले गए। अंग्रेज भी चले गए। पर मुगलिया और अंग्रेजी मानसिकता ने हमारे मन मस्तिष्क पर जो छाप रख छोड़ी है उससे उबरने में शायद वर्षों और लग जाए। सही मायने में तो मानसिक तौर पर आजादी का पाना अभी बाकी है। इन्हीं भावों को दर्शाती हुई प्रस्तुत है मेरी स्वरचित कविता “क्या आज़ाद हुए हैं हम”…………..
जब लिया है इस मिट्टी पर जन्म,
तो करो कुछ ऐसे अच्छे करम।
जिससे ऊँचा उठे तुम्हारा वतन,
झंडा देश का ऊँचा रहे हरदम।
राष्ट्र की सदा बनाए रखो आन,
बढ़ाओ सदा इसकी शान और बान।
न उठाना जिन्दगी में ऐसा कोई कदम,
जिससे कि राष्ट्र का हो जरा भी पतन।
राष्ट्र रहेगा तो ही तुम रहोगे,
रखना सदा ही याद यह बात।
अपने निजी स्वार्थ के लिए कभी,
राष्ट्र के साथ न करना कोई घात।
कहते हैं मत सोचो राष्ट्र ने क्या दिया,
यह सोचो तुमने राष्ट्र को क्या दिया।
जिंदगी में जो भी हो मजबूरी तुम्हारी,
रखना सदा राष्ट्र हित को सर्वोपरि।
न करना कभी राष्ट्र को तोड़ने की कोशिश,
राष्ट्रप्रेम और राष्ट्र भक्ति में होती एक कशिश।
इस कशिश को कभी टूटने न देना,
और किसी को भी राष्ट्र तोड़ने न देना।
देश जो कहने को आजाद हुआ १९४७ में,
पर क्या सच ही आजाद हुआ गुलामी से?
मुगल गए, अंग्रेज गए फिर भी मन है गुलाम
इस गुलामी से हम फिर भी हैं क्यूँ अनजान?
इस मानसिक गुलामी को मिटाना होगा,
बौद्धिक स्वाधीनता को फिर पाना होगा,
राष्ट्र की प्रगति को गतिशील बनाना होगा,
आजाद भारत को फिर आजाद कराना होगा।
आज़ाद के इतने सालों बाद भी सोचता हूँ क्यूँ,
सोच हमारी न बदली, ऐसा भला हुआ ही क्यूँ?
राष्ट्र विरोधी ताकतें जुटी बाजार में तोड़ने देश,
जाने कौन हैं ये गद्दार, कैसे उनके मन के द्वेष?
क्यूँ होता है आज भी खुले आम, अस्मिताओं का व्यापार?
क्यूँ फैला है अब भी हर ओर, हर स्तर पर भ्रष्टाचार?
क्यूँ नहीं अब भी हमें, खुली हवा में सांस लेने की आजादी,
हवाएँ हो रही प्रदूषित, क्यूँ हो रही स्वास्थ्य की बर्बादी?
क्यूँ होती है आज भी खुले आम, अख़बारों की खरीद फरोख्त,
गरीब बीनता कचरे से भोजन, अमीर खाते रहते महलों में गोश्त।
क्यूँ होते हैं आज भी, धर्म के नाम पर खुली मार काट?
क्यूँ करते हैं आज भी नेतागण, कुर्सी के लिए यूँ बन्दर बाँट?
प्रशासनिक आज़ादी मिली भारत को, बौद्धिक आजादी कब मिलेगी?
भारत माँ की पावन भूमि, गद्दारों की गद्दारी कब तक सहेगी?
आओ आज सब मिलकर हम, ले लें फिर से आजादी का प्रण,
चारों दिशाओं में, हर आँगन में, फहरा दें हमारे तिरंगे का परचम।