कुरबत
कुरबत
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अजीब सा नसीब है
सब कुछ होकर भी,
कुछ भी नहीं है।
परिंदों से उड़ान तो भरते हैं,
लेकिन पर नहीं है
हाथों की लकीरें तो बदलते हैं।
पर खुदा से दोस्ती नहीं है
खुद की हक की बात तो करते हैं
पर गिले-शिकवे में ही दिन गुजारते हैं।
खुद की बरकत में सभी को
शिरकत तो करते हैं लेकिन,
सबसे किनारा रखते हैं।
रहस्यमई सा विरोधाभास है
सबसे कुरबत तो है लेकिन,
फिर भी किसी से कुरबत नहीं।।