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Neeraj pal

Others

4.9  

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कुदरत

कुदरत

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आदिकाल से कुदरत का, अपना ही रहा विधान।

 फिर भी नासमझ मानव ने, किया है इसका अपमान।।


 विमुख है मानवता के भाव से, कहता खुद को इंसान।

 झेल रहा अनेकों संकट, मिट गई खुद की पहचान।।


 बोझ तले दबा जा रहा, फिर भी करता गुमान।

 जीवन रूपी काया भी लगती, उसको पहाड़ समान।।


 अज्ञानता रूपी पट्टी ने, कर दिया जीना दुश्वार।

 कुदरत के थपेड़ों ने,उसको आगाह किया बारंबार।।


 भोग- विलास के चक्कर में, अधर्म को तूने है अपनाया।

आंतरिक वृत्तियां नचा रहीं, अशांत जीवन है अपना बनाया।।


 मनोबल तेरा साथ न देता,फिर भी कर रहा करुण पुकार।

 प्रकृति देती मौन उपदेश, रहनी- सहनी को अपनी सुधार।।


 गुरु तो बड़े दयालु हैं ,आत्म शांति का देते उपदेश।

 ईश्वर के अंश बन ए, हर लेते सबके  क्लेश।।


 खाली झोली सब की भर देते, दाता अपरंपार हैं।

 एक बार जाकर तो देखो, भव्य सजा दरबार है।।


 रोग संताप सबके मिट जाते, कर ले उनका संग।

" नीरज" तू भी गुरु को भज ले, कर ले उनका सत्संग।।



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