कुछ लम्हे
कुछ लम्हे
मुमकिन नहीं हर वक़्त मेहरबां रहे ज़िन्दगी।
कुछ लम्हे जीने का तजुर्बा भी सिखाते हैं।
ना जाने क्या कशिश है, इस ज़िन्दगी की रफ्तार में।
कि जीते है इसे और जीते ही जाते हैं। कुछ लम्हे जीने का तजुर्बा भी सिखाते हैं।
फँसे कुछ इस कदर हैं हम ख्वाहिशों की दलदल में।
निकलना चाहा भी तो और फंसते ही जाते हैं।
कुछ लम्हे जीने का तजुर्बा भी सिखाते हैं।
हावी इस तरह होता है, कामयाबी पाने का सुरूर।
कि ना कुछ हाथ लगता है और ना कुछ छोड़ पाते है।
कुछ लम्हे जीने का तजुर्बा भी सिखाते हैं।
सोचा यही था कि नापूँ समंदर की गहराई।
हर बार लाकर किनारे पे माजी छोड़ जाते हैं।
कुछ लम्हे जीने का तजुर्बा भी सिखाते हैं।
ये माना रास्ते हैं जुदा ज़मीं और आसमान के।
हम ना ज़मीं हैं, और ना आसमान हैं। तो फ़िर क्यूं इतना तकल्लुफ उठाते हैं।
कुछ लम्हे जीने का तजुर्बा भी सिखाते हैं।