कुछ कमियाँ मुझ में थी...
कुछ कमियाँ मुझ में थी...
माना कुछ कमियाँ मुझ में थी
तो कुछ तेरी भी थी ख़ामियाँ
फिर सिर्फ मुझे ही क्यों मिली ये बदनमियाँ
क्यों मुझ पर ये सारी पाबंदियाँ
क्यों सवाल करती मुझ पर ये सारी दुनिया
क्यों मेरे पाँव में ही ये बेड़ियाँ
क्यों है मेरे चरित्र पर लाखों उठते सवाल
क्यों मेरे हर कदम पर होती ये काँटों की हार
क्यों मैं ही हूं सबकी नज़रों में कसूरवार
क्यों तू है सबकी नज़रों में पाक साफ़
क्यों तेरी सारी ग़लतियाँ हैं माफ़
क्यों नहीं होते तेरे चरित्र पर कोई सवाल
क्यों नहीं तुझ पे कोई पाबंदी लगाने वाला
क्यों तेरी गलतियों पर है दुनिया के मुंह पे ये ताले
क्यों तेरे काले काम को भी मिलते दुनिया के उजाले
आज में पूछती हूं
क्या औरत होना कोई गुनाह है?
क्यों औरत को ही मिलती है बदनामियाँ ?
क्यों हर बार औरत में ही निकाली जाती है कमियाँ?
ये बता कौन है जिस में कमी नहीं है?
अरे आसमान के पास भी तो जमीं नहीं है..!!!