कुछ अधूरा सा है
कुछ अधूरा सा है




कहने को हम भीड़ का हिस्सा है,
फिर भी हर इंसान अधूरा है,
इंसान है पर इंसानियत नहीं,
दौलत है पर सेहत नहीं,
ख़ुशियाँ है पर बांटना नहीं आता,
खिलौने है पर खेलने के साथी नहीं
प्यार है पर वो भी मतलबी सा है,
रिश्ते है पर सच्चे नहीं,
वादे है पर पक्के नहीं,
वक्त है पर मोबाइल के लिए,
घर वालों के लिए नहीं,
वफादारी की चादर ओढ़ कर सोते है,
पर ईमानदारी का कहीं पता नहीं,
कहने को सब अपने है,
पर मुसीबत आते ही पराए हो जाते है,
बड़ी सोसाइटी में रहते है,
पर पड़ोस में कौन रहता है पता नहीं,
बड़ी बड़ी गाड़ियों में घूमते है,
पर दिलों में जगह नहीं,
दूसरों की तरक्की देखकर घबरा जाते,
पर खुद मेहनत करते नहीं,
रोशनी में अंधेरा कर लेते है,
पर अंधेरों में दिए जलाते नहीं,
बच्चों को समय देते नहीं,
और बुढ़ापे उनके सहारे जीने का
सपना देखते है,
मूवी में पैसे खर्च करेंगे,
पर गरीब सब्जी वाले से मोल भाव करेंगे,
दोस्ती हजारों से है,
पर किसी दोस्त को घर बुलाते नहीं,
गरीबों को दान देते है,
और घर के नौकरों को फटकार देते है,
भगवान को भी बस काम के लिए
याद करते है,
भक्ति है पर भाव नहीं,
कला है पर सच्चे कलाकार नहीं,
बस फिर वो सवाल,
वो क्या है जो अधूरा सा है,
वो क्या है जो मिल नहीं रहा,
वो क्या है जो खोया भी नहीं,
वो क्या है जो पैसे से भी नहीं मिल सकता,
बहुत पूछने पे पता चला,
वो तो बस दिल का सुकून था,
जो दूसरों से आगे निकलने और
बेहतर बनने की होड़
में खो गया।