क्रोध और शक
क्रोध और शक


क्रोध इंसानियत हर लेता
शक रिश्तों को स्वाहा कर देता।
पर फिर भी दोनों इंसान की जेब में रहते
कभी भी निकाल भुगतान कर देते ।
खरीद लेते बर्बादी, अपनी बर्बादी,
अपनों की बर्बादी ।
कब यह क्रोध और शक आग पकड़ ले ,
न उम्र निश्चित, न समय
पर इस अग्नि को हवा
यदा-कदा देते ही रहते ।
मासूमों के घर उजाड़ते ही रहते ।
जाने कितने कुटुम्ब इनकी
आग में सुलगते ही रहते ।
फिर भस्म हो जाते ।
पर जो मासूम इन भस्मों में बड़े होते
वे कभी खुशहाली के
पुष्प खिला नहीं पाते ।
उनके विश्वास खंडित हो
रिश्तों में बिखरे ही रहते ।
दुनिया बसाने के डर से
ही सिहर उठते ।
तो दुनिया कैसे बसाएँगे ?
बस भी गई तो कैसे निभाएँगे ?
तो क्यों ये खंजर जेब में रखते ?
क्यों अपने को लहुलुहान करते ?
क्यों अपनों को प्यार-प्रेम,
विश्वास-भरोसा, सुख-शांति
धैर्य से नहीं जकड़ते ?
क्यों अपने घरों में
सुरम्य स्वर्ग नहीं बसाते ?
क्यों इन्सानियत की
एक नई मिसाल नहीं बनते ?
क्यों विनाशकारी क्रोध और
शक विसर्जित नहीं करते ?