कोरोना की मार
कोरोना की मार
जब से कोरोना आया,
ज़िन्दगी बेरंग हो गई,
हँसी कहीं खो गई,
बुझे - बुझे से चेहरे हैं,
पंछी की तरहा चहचहाते थे,
अब पिंजरों के से पहरें हैं,
न उमंग हैं, न तरंग हैं,
ज़िन्दगी उलझी पहेली हो गई,
किसी को आर्थिक मंदी की मार,
किसी को स्वास्थ्य की धार,
सता रही है,
रास्ता कोई नहीं सूझ रहा,
हर इंसान मन ही मन कूढ़ रहा,
कहाँ जाये, किससे कहें,
लगता है सभी बहरे हो गये,
इंसा का इंसा से भरोसा उठ गया,
इंसा अपने ही ख्यालों में गुम हुआ,
दोगला तो पहले ही था इंसा,
अब तो नक़ाब भी तार - तार हुआ,
पैसे की भूख ऐसी जगी,
इंसा जानवर से भी बद्तर हो गया,
बाज़ार ऐसा खुला काला - बाज़ारी का,
ज़िन्दगी का मोल - भाव लग रहा,
इंसा बलि का बकरा बन रहा,
और तो और लाशों का भी सौदा हुआ,
लगता है कि दुनिया से ही मन भर गया,
न रिश्तों की परवाह, न कदर इंसा की,
बस पैसों की खनक इंसा सुन रहा,
इंसा की हैवानियत को देख,
ऊपर वाला मन ही मन सोच रहा,
बनाया था इसको मैंने तो इंसा,
ये जानवर से भी बद्तर हुआ,
शर्म के मारे ईश्वर भी "शकुन",
कहीं छुप गया।