कोई कुछ भी कहे
कोई कुछ भी कहे
कोई कुछ भी कहे
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सुरेन्द्र कुमार सिंह चांस
कोई कुछ भी कहे
विचारों के दल दल,
सत्ता की अमर्यादित महत्वाकांक्षा,
और तार्किक संवेगों के चक्रब्यूह में
उलझी हुई नहीं है हमारी भारतीयता।
चीखें सन्नाटे के बैरियर को
तोड़कर मनुष्य तक नहीं
पहुंच पा रही हैं
तो ये सन्नाटा ख़ौफ़ जन्य है
जब कि माँ की साया में
आंख से टपके एक बूंद की आग से
भभक कर जल सकता है
वो सब जिसमे जीवन उलझा हुआ है
पर माँ है कि रोने नहीं देती
दिशा ,संकेत करती रहती है
जीवन पुलकित होता रहता है
परम्पराएँ टूटती रहती हैं
और जड़ता की पथरीली जमीन पर
जरूरतें ,मानवता से संपूरित हो
उगती रहती हैं।
आंखों से आंखें मिलती रहती है
चेहरे पर मुस्कान फुदकती रहती है
उदास से मौसम में ख़ुशी चहकती रहती है।