कल्पना के शहर में
कल्पना के शहर में
तुम मेरे मन में जागे
तो एक बिजली सी कौंध गई।
कभी किसी के ठहराव से,
कभी किसी की आहटों में,
मैं किसी पगली पुरवैया की तरह,
तुम्हारे ख्यालों में बहती चली गई।
मेरे प्राण उकेरती रही वो शाम,
जिस दिन हम मिले थे पहली बार,
उस कल्पना के शहर में।
उस शहर में, उन हंसीं वादियों के बीच,
तुम मेरे नजदीक तो थे,
मगर केवल मेरी कल्पना का हिस्सा थे।
इसलिए वो मुलाक़ात पूरी होकर भी अधूरी रही
क्योंकि वादियाँ तो बहुत-सी देखी मैंने,
मगर वहाँ तुम नहीं थे।
वो कहते हैं न,
कुछ एहसास केवल इसलिए संदूक में बंद रहते हैं
क्योंकि उन्हें खोलने के लिए कोई मौजूद नहीं रहता।
जीवन की डगर में कुछ गुमशुदा लोग ऐसे भी होते हैं
जो कल्पना के शहर में मिलकर कहीं खो जाते हैं,
जैसे, तुम खो गए,
और तुम्हारे जाते ही मेरी कलम भी
किसी दूसरे परदेश का रेखाचित्र बनाने में मशगूल हो गई।