किवाड़ खा गई
किवाड़ खा गई
सबूत भी गवाह भी
किवाड़ खा गई,
जालिम ये दीमक सारी,
मक्कार खा गई।
हराम की थी रातें,
छिपी सी मुलाकातें ,
किसने खिलाये क्या गुल,
गुमनाम सारी बातें।
आस्तीन में छुपे हुए,
गद्दार खा गई ,
जालिम ये दीमक सारी,
मक्कार खा गई।
जिस रोड के थे चर्चे ,
जिस पर हुए थे खर्चे ,
लायें कहाँ से उसको ,
लिख लिख भरे थे पर्चे।
कि झूठ पर फले सब ,
रोजगार खा गई,
जालिम ये दीमक सारी,
मक्कार खा गई।
फाइल में बन पड़ी थी ,
चौपाल की जो बातें,
ना ब्रिज वो दिखती है ,
बस नाम की ही बातें।
दफ्तर के काले चिट्ठे ,
कारोबार खा गई,
जालिम ये दीमक सारी,
मक्कार खा गई।