कितनी ही बार
कितनी ही बार
कभी-कभी अच्छी नहीं लगती कुछ कविताएं,
फिर भी कह देता हूँ कि अच्छी हैं,
किसी अकेले का अकेलापन कम हो जाए शायद।
चाहे ऑफिस में कितनी ही बातें सुन ली हों ज़बरदस्ती,
फिर भी घर में हँसते हुए घुसता हूँ,
मुझे ले के परिवार में कोई मायूस न हो कभी।
दर्द पैरों में रह-रह कर उठ जाता है कभी,
फिर भी दिखाता हूँ कि दुनिया से आगे चल के,
कोई एक भी दौड़ने का हौसला पा जाए शायद।
कुछ लोगों को देख मन होता है एक किक मारने का,
फिर भी उन्हें रोज़ शुभकामना मैसेज भेजता हूँ,
शायद बच जाएं वे कभी फुटबॉल बनने से।
कान फोड़ संगीत की संगत में होता है सिरदर्द,
फिर भी नाच लेता हूँ स्टेज पे उसी की धुन के साथ,
किसी दोस्त के चेहरे पे आजाए मुस्कान तो।
कितनी-कितनी ही बार मैं झूठा एक्ट करता हूँ,
थियेटर के किसी प्ले के मंझे हुए आर्टिस्ट की तरह,
किसी से यह सुनते हुए की झूठ पाप है
और किसी से यह कि झूठ गलत है।
किंतु...
कहना-करना झूठ अगर हो, ज़िन्दगी के लिए तो बुरा तो नहीं।