क़ीमत
क़ीमत
मौला मेरे,
क्यूँ बना दी तूने…यह फ़ालतू सी चीज़ें ?
यह दौलत, यह तराज़ू, यह बेमानी सी रीतें…?
बेवज़ह तोलने लगें हैं लोग अब,
जज़्बातों को इनमें ...
काश इन जज़्बातों की भी कोई क़ीमत होती…
इस जज़्बाती दिल की बाज़ार में,
सोचो कितनी हैसियत होती…