ख्वाहिशें मेरी
ख्वाहिशें मेरी
कितनी आसानी से मुझसे किनारा कर गए तुम
अपनी हर बेमानी बातों पर मनमानी कर गए तुम
रिश्ता हमारा और नियम सारे तुम्हारे रहे हर दफ़ा
ग़लती किसी की भी रही हर बार मुझे मिली सजा
क्या मुझसे कही सब बातों का कोई मोल ना था
क्या रिश्तों में अपने भावनाओं का तनिक भी ज़ोर ना था ?
नहीं थी दिल में ख्वाहिशों की लम्बी फ़ेहरिस्त
ख़ुशियों का गुल्लक और चेहरे पर हल्की सी मुस्कान
थाम कर हाथ चलना था बस सुबह शाम
तुम्हारी हर बात पर था रूठना और मानना
तुम संग हंसी के कहकहे लगाना और ,
थक कर तुम्हारे ही बांहों को थामना
रौंदकर हर बार मेरे जज्बातों को
कैसे रह जाते हो इतने शांत और सहज
मेरी मिन्नतों पर एक बार तो सजदा किया होता
टूटते हुए मुझ को एक बार खुद में थोड़ा समेटा तो होता
चाहती हूँ कि टूट जाऊँ, बिखर जाऊँ
तुम रहो साथ हमेशा मेरे और
मैं महताब सी सँवर जाऊँ....