ख़्वाहिश
ख़्वाहिश
मन बहुत है लिखने का, लिखती जाऊँ
मेरे शब्द तुझ तक कैसे पहुंचाऊं
तू खुश है कहीं और...जानती हूं सही है
मगर खुद को ये कैसे समझाऊं
मीरा के मोहन, राधा के बन गये कृष्ण
ये दर्द अपना किसको दिखाऊं
रूकमणी भी निहारे है तुम को यहां
हर जन्म नें बस तुम को ही पाऊँ
बिखर गयी हूं, बिखरती जा रही हूं
एक पल को ही सही ,
चाहत है मेरी यही
तुझे जी भर कर गले लगाऊं.....