खुद से करके देख
खुद से करके देख
आजकल जीना भी हम दूसरों से सीखते हैं
और खुद को हमने कहीं कैद कर लिया है।
हर सवाल का जवाब हम बाहर ढूंढते है,
और अपने भीतर देखना ही बंद कर दिया है।
हर जवाब केवल मोबाइल में ही मिलता है
और न मिले तो मन ये बहुत डरता है।
बात छोटी हो या बड़ी बस
देखना सब मोबाइल में ही रहता है।
कैसे अब सांस ले या फिर कैसे अब बात करे
ये सब भी मोबाइल ही बताता है।
हंसी रोक नहीं पाता और आंसू पोंछ नहीं सकता,
जीते हुए हज़ारो वर्ष हो गए पर आज इंसान को खाना पीना
और चलना भी मोबाइल ही सीखाता है।
कैसा ये अभाव हुआ है सोचका और कहाँ खो गया ये
वो इंसान जो मेहनत करने में यकीन करता था
और जब तक मंज़िल न मिलती थी वो कभी न रुकता था।
और आज ज़रा सा भी काम करने से पहले मोबाइल देखा जाता है,
और कहीं फंस गए तो सबको सूचित किया जाता है।
ऐसे ही इंसान रहा होता तो न कोई बल्ब बनता
और न ही कोई इंजन और ऐसे ही हम सोते रहते
और एक दूसरे को दुख अपना रोते रहते।
किसी भी बात का अतिशय ठीक नहीं होता और जो
समय रहते कुछ न किया तो रोग ये कभी ठीक नहीं होगा।
खोया जो विश्वास है खुद पे वो ढूँढ निकालना होगा
और बार बार हर सवाल का जवाब
मोबाइल से मिलना ही सही है ये हमे भूलना होगा।
आओ खुद से फिर पूछते कुछ सवाल है
और जवाब मिलने तक करते कुछ प्रयास है।