कहीं कुछ छूट तो नहीं गया
कहीं कुछ छूट तो नहीं गया
कहीं कुछ छूट तो नहीं गया,
हाँ छूट तो बहुत कुछ रहा था
मेरी विदाई हो रही थी,
आँसुओं की लड़ी बह रही थी,
पंडाल खाली हो रहे थे,
कुर्सियां भी सूनी हो रही थी,
कहीं कुछ छूट तो नहीं गया,
हाँ छूट तो बहुत कुछ गया
छूट रहा था बचपन का आँगन,
छूट रहा था पिता का प्रांगण,
छूट रहा था खिलौनों वाला कमरा,
छूट रही थी सहेलियां,
छूट रही थी अठखेलियां,
छूट रहे थे सारे अहसास,
हाँ बहुत कुछ छूट रहा था
हाँ सब कुछ तो छूट रहा था
परिवार छूट रहा था,
भाई बहन छूट रहे थे
रिश्ते छूट रहे थे
हाँ छूट तो बहुत कुछ रहा था
थी मन में घबराहट
कुछ सुगबुगाहट
पर था विश्वास
एक नये परिवार का
एक नये संसार का
नई जिम्मेदारियां
नये रिश्ते
डर भी था
अगर न निभा पाई तो?
उठ रहा था एक ही सवाल
“माँ ने कैसे निभाया होगा सब कुछ”?
दादी माँ का वह कड़क व्यवहार,
हम बच्चों के अजीबोगरीब नखरे,
संयुक्त परिवार की बंदिशें
आत्मजनों की कानाफुंसी,
दिनभर की मशक्कत
जैसे अपनी कोई जिन्दगी ही न थी
सब कुछ अपनों के लिए
सब कुछ परिवार के लिए
फिर भी कोई नाम नहीं
कैसे काटी होगी माँ ने वह जिन्दगी
“हम ने तो कभी न सराहा माँ के काम को,
कभी दो पल पास न बिठाया माँ को,
कभी हाथ न बँटाया माँ का”
उठ रहा था बार बार यही सवाल,
“जाने कैसा होगा ससुराल”?
नये लोग,
नये रिश्ते,
नये बंधन,
नई बंदिशें,
“कैसे सकूँगी सब कुछ संभाल,
क्या मेरा भी होगा माँ जैसा हाल,
क्या मेरा भी होगा माँ जैसा हाल”?
ससुराल पहुँच गई
ननद ने आरती उतारी,
सास ने बलैया ली
बहुत मेहमान जमा थे
सब अनजान
कैसे निभाऊंगी जिम्मेदारियां
कैसे निभाऊंगी रिश्ते
जिन्दगी के छब्बीस साल जहां गुजारे
वह आँगन छोड़ क्यूँ आना पड़ता हैं
लड़कियों को किसी अनजान शहर
किसी अनजाने घर
एक अनजानी डगर
क्यूँ, क्यूँ, क्यूँ?
किसने बनाये हैं यह नियम कि
छोड़ कर जाना पड़ता है
हर लड़की को
शादी के बाद
क्यूँ जाना पड़ता है
एक अनजाने परिवार में,
अनजाने रिश्तों के बीच?
आज बहुत कुछ पीछे छूट गया था
सब कुछ छोड़ कर
एक नये परिवार की
जिम्मेदारियों का बोझ उठाने
बाबुल की गलियाँ छोड़ कर
एक अनजानी डगर पर चलने
क्या यही है हर लड़की का मुस्तकबिल
क्यूँ नहीं हो सकता लड़की को
माता पिता को संभालने का अधिकार हासिल?
आज बहुत कुछ पीछे छोड़ आई थी
साथ लाई थी बस कुछ सवाल,
और यादों का पुलिंदा।
आज जब माँ साथ नहीं थी,
माँ की बहुत याद आ रही थी
वैसे ही कब नींद आ गई पता ही न चला।
नींद में ही सास की आवाज़ आई
“बहू, उठो नहा लो, सुबह के पाँच बज चुके
मेहमानों के लिए नाश्ते में हलवा पूड़ी बना देना”
और मेरी नींद टूट गई
सामने माँ खड़ी थी सुबह की चाय लेकर
“बेटी उठ जाओ, सात बज रहे हैं,
चलो तैयार हो जाओ,
नाश्ते में गरमागरम पूड़ी और हलवा बनाया है
तुम्हें पसंद है ना”?
और जाने क्यूँ मैं माँ से लिपट गई और
कहने लगी, “माँ, कल से नाश्ता मैं बनाऊंगी”
माँ मेरी और भौचक देख रही थी।
मैं बहुत ख़ुश थी
उस रात के सपने ने बहुत कुछ सीखा दिया था
बहुत ख़ुश थी कि कुछ भी तो छूटा न था।
बाहर सुबह की मुसकुराती धूप खिड़की को चूम रही थी।